चलो चलें

तिमिर से निकल लें आलोक से निकल लें प्रतिबध्द सीमा से निकल लें विषमताओं के पार चलें निरंतरता के मुक्त गगन में चलो चलें..... तन की भूख प्यास रोज हम मिटाते हैं आज मन की जरूरतों को पूरा करने चलो चलें..... अपेक्षा है तन की मन में भी तरंगिणी है लहरों की सच्चाइयां हैं तडफ और बेकरारी है.... प्रेम है संवाहक उल्लास का मन से होता जो परिस्कृत ईर्ष्या के ढुलमुल रवैए से मन नहीं होता है परिवर्तित..... आज अमृत पी लें आज हलाहल पी लें सूक्ष्म में सुरंग कर लें जीवन मृत्यु से दूर आज तेरे हो लें चलो चलें उस पार चलें......! ~जीवन समीर ~

टिप्पणियाँ

Anuradha chauhan ने कहा…
बहुत सुंदर 👌
Jiwan Sameer ने कहा…
धन्यवाद अनुराधा जी आभार बहुत बहुत

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