बिंबों के शहतीर
विस्तृत शुचि अतीत मेरा स्फुरित होकर आता है अनुराग वैभव बचपन का प्रसुप्त सा प्रसून बन प्रस्फुटित होता है। यौवन है आज किंतु उद्विग्न विह्वल कलह जगत का अतिक्रम का अवशेष यह सरस आचार था छुटपन का। स्वच्छंद व्योम की वयार में पंछी सा उड़ जाता था जहां चाह वहां राह प्रतिक्षण प्रमोद में जीता था। सघन सत्य वैमनस्य विरत न जुगप्सा ज्वाला अंकुर फूटा बीज का प्रेम सुधा का मधु प्याला। व्यंग्य बाण न ताना बाना आभा व्याप्त उन्माषित था थी व्याप्त निरवद्य उपासना अमिय रस में पल्लवित आश्रय था। मां का आंचल छाया बनकर पिता की उंगली संभल था नेह मैत्री भाई-बहन की गुरु संदेश तुष्टि का। गगन की स्वच्छंद वयार में पंछी सा उड़ जाता था मनमौजी तारों सा बिचरता था प्रतिपल प्रमत्त उन्मुक्त था। सब पाकर भी सब खोया जीवन का मतलब समझ न आया माया मोह के जंजालों में सर्वस्व समर्पण कर भी चैन न पाया। आज स्मृत हो आया अंतस् में उजास भू का उजास अतीत छोर मेघ घिरे नभ में जब लौटा सजग प्रहरी सा छोर। स्वछंद गगन में मेघों ने रचे बनते-बिगड़ते बिंबों के शहतीर गरल मौन पीते पीते दामिनी हुई विह्वल चेतन...