अनहोनी
ठूंठ हिमालय हिमखंडों के चीथडों से अलग-थलग कुबडे की शक्ल में खड़ा है निर्वासित धरा धराशायी है भूकंप के पहरों से दूर कहीं उजाड़ सा उपवन कुछ पीले पत्तियों में सिमट कर खंखार रहा बलगमी खांसी निःसीम निःसत्व निर्लज्ज प्रभंजन के खूंखार स्वर प्रलाप कर रहे समुद्र भीषण गरल उगलता मदमत्त लहरों को कामुक वर्जनाओं में भर भर कर उच्छखृंलता की सीमाएं लांघता अंत होता प्रादुर्भाव से बिमुख सृजन का लिप्साबद्ध मुखौटे लुंजपुंज विलासिता की अमराई खंडखंड मानवनिर्मित दिखावटी कौशल परमाणु बम सा संशय का शैतान बिरक्तियों का रक्त विवृत फैला लाचार ब्रम्हांड काल के आगोश में शब्दों की नरमाई में सुसुप्त लज्जा का शव दह उठा है धुंए की शक्ल में उठ रही हैं ज्वालाएं अनहोनी बोल कर नहीं आती! ~जीवन समीर ~