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मुक्त छंद

चिर तृष्णा तन आकुल चिरक्षुधा कहां बुझ पाती पनघट प्यासा सागर प्यासा अवनि की छाती है फटती अंबर प्यासा दिनकर प्यासा चहुँओर प्यास की प्यास जगी स्नेह निर्झर बहता ही जाय यही है मेरे उर में आस जगी। श्यामा निशि में खाक छानती बेकल तिमिर बंजारन बिन बुलाए ही आ धमकती चांदनी का कर निर्वासन व्याकुल हैं चांद सितारे यहां चकोर भी रूठा रूठा सिहरा है मरुथल से जीवन की मधु चांदनी होकर भी सब मिथ्या है स्वेद की बूंदों में है पुष्प खिलते परिश्रमी को है ये वरदान मिलते कर्म नहीं कोई असंभव होता सरिता मुडती है पर्वत भी हैं झुकते साधना है जीवन का सार सदा प्रस्तर सरिता की धार में शंकर बना करते मानवता खोकर ईश्वर नहीं बन सकता ईश्वर अवतार लेकर मानव बना करते परहित में जो लगे मानव वही है