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पतंग की डोर सी

पतंग की डोर सी स्वप्नों की उड़ानें दे दो घड़ी भर के लिए बचपन के जमाने दे दो। इस जहां में मन नहीं लगता है अब कहीं मुझ पर एहसान करो दोस्त पुराने दे दो।। जिन लपटों में बेबस सन्नाटा पसरा हो उनको भर कर तुम मौत के पैमाने दे दो। जिस्म तक ही मोहब्बत सिमटी है इधर गम गलत करने के मुझे बहाने दे दो।। बहुत घुटन हे तेरी तासीर में अच्छा हो गर भावों की नरमी भरे मुझे मयखाने दे दो।। ~जीवन समीर ~

तुम क्यों अचानक

मिलन बांसुरी बजाकर सृजन का साज सजाकर नेह के नयन मिलाकर प्रीत के मधुर गीत गाकर खो गई तुम क्यों अचानक... छुपी चाह की अग्नि में घी छिड़क कर अंधेरी निशा में रोशनी दिखाकर कामज ज्वाला भडका कर रोम-र में दाह उकसाकर छोड़ गई तुम क्यों अचानक.... कौन - सी राह में गुजर गई हो कौन-सी स्पंदित शिराओं में सिमट गई हो जर्जर वय की उच्छखृंला में घिरकर दृगों में जग का सार लिए चली गई तुम क्यों अचानक   .! ~जीवन समीर