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अब विदा लेने आया हूं

हरित तृणों की स्निग्ध धरा से चुने थे सुरभित सुमन स्नेह भरे उर के उत्ताल तरंगों में आभासित पर्वत बालाएं निहारती थी तटिनी तीरे ओ पावन सलिला प्रवाहित हो जाऊं तुम सा बंधनमुक्त किसी अनंत गंतव्य को निकलूं तन्मय कोहरे और हिम को लांघता ठंडी चट्टानों में ढक मौसम को सहेजूं रसीले कंदमूल चख क्षुधा शांत करूं कलकल करती निनाद सरिता के संग संग सागर में मिलनातुर क्षणभंगुर जीवन की सांझ विदा दो मुझे नयन नीर बहा क्रंदित अंग अंग खाइयों घाटियों से उतरता उतराता अंतिम क्षण विदा ले ह्रदय का उत्कर्ष प्रकीर्ण प्राण प्रिय यौवन गर्म श्वासों और रक्त से विदा विदा हे यौत्स्ना पल्लवित धरा सो लेने दो विदा होने योगनिद्रा में लीन मेरी मातृभूमि मेरी जन्मस्थली ये गिरी जिसके स्पर्श से आह्लादित हो उठता मन गरिमामयी इतिहास लिए सुधा स्रोत मेरी विराट अंतस में समाहित मेरा कणकण गदराये थे जहां बचपन यौवन की लिप्सायें जहां रूदन में भी अमृत झर-झर झरता छीरवन जो बहता निर्झरों का वेग तुम शरद की चांदनी सा भावनाओं का तार छेडता सत्य के उजले तन पर पोत रहे कालिख क्यों नयनों को मौन अश्रु गा रहा अलख गाथा निर्लज्...