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पीर पत्थर की

किसको सुनाऊं पीर यहां किससे सुनूं धीर यहां एक बारिश तन भीगा रही एक बारिश नयन भीगा गई एक बारिश मन सिहरा गई मौसम बंजारा है यहां बेघर घूमे यहां वहां व्यथाएं आज बरस रही तन मन को भिगो रही पत्थर हूँ मौन खड़ा निशि वासर एक सा न खनक न स्पंदन जिसने चाहा जहां फेंका जहाँ चाहा चुन दिया किसी ने महल में टांग दिया किसी ने मंदिर में हांक दिया किसी ने ईश्वर का रूप दे दिया किसी ने नग्न आकृति दे दी कहीं मैं भग्न हुआ कहीं रहा भग्नावशेष हूँ अकेला राह में ठोकरों में जीता निस्तब्ध निस्पंद निस्पृह दुख तो हुआ जब मानव ने मुझे हथियार बना दिया मेरी कौम को बदनाम किया पत्थरबाजी कर मेरा सर झुका दिया मां से उसका बच्चा छीन लिया पत्थर हूं मैं सब समझता हूँ मानव तो पत्थर था पत्थर ही रहेगा मुझमें आदमियत उभर रही है देखो मुझमें गीत गूंजने लगे हैं प्रेम और सद्भावना भरे मेरे घाव अब भी हरे-भरे मैं पत्थर हूँ तुम पत्थर दिल क्यों हो गये हो मुझे अकेला छोड़ दो मंदिर मस्जिद से दूर मैं नयाघर बसाना चाहता हूं नेह सौहार्द भरा पीर मेरी अनकही पीर मेरी अनसुनी ढो रहा बोझ अंतस् का बनकर पत्थर हो जाने त...