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जन्मने से पूर्व

मैने वंचित रखा है इस बूढ़े सठियाये प्रेम को स्वयं से! क्यों लगा रहता है  मरने की कोशिश में  जैसे अवैध  पल रहे शिशु को  निकाल देना चाहती हो वह नवयौवना जिसे मैंने अपनी अकृतिम वासना से  प्रेम के जाल में फांस कर बनाया था  हवस का शिकार!  वह नहीं जन्मने देना चाहती ठूठ चिंह को सूखे अवसाद की फड़फड़ को रेंगती हवाओं के सहारे!  सुगंध की सौगंध खाकर भी मैं लंगडाता ही चला जा रहा हूं!  उदासियों की तासीर में  उसकी सारी भड़स  सारी संवेदनाएं उसके अल्हड़  गदराये तन को उदास नहीं करती सामर्थ्य भरती है!  मैं भंवर में हूँ  नदी के अजल प्रवाह में  भटक कर  डूबने को तैयार हूँ  जिसमें तैर रही हैं  तुम्हारे डबडबाये  अश्रु बुलबुले!  तुम्हारे द्वारा फेंका हुआ  हताश जाल आकाश लेकर आता है  पाल!  किंतु सब निरर्थक है  टूटने के बाद  निर्वस्त्र देह भी कहां झेल पाती है  अंतर्मन की पीर!  जब भी आत्मा  का बोझ सीने से हटेगा हत्यारे प्रेम की लहरें हम दोनों के बीच  फिर कोई संबल खड़ कर देग...

मैं चक्रधर हूं

कर्ण नहीं मैं कि जो मांगो दे दूंगा लाचार नहीं मैं जो चाहोगे कर जाऊंगा मैं हिंद हूं दानी हूं पर अभिमानी हूं प्रेम में सर्वस्व समर्पित कर जाऊंगा अतीत के घावों से आक्रोशित है जर्रा जर्रा क्रूर नहीं मैं पर छेडोगे गर मुझको क्रूरता की सीमा पार कर जाऊंगा और सोच लेना प्रभंजन के सम्मुख अटल पहाड़ हूं ये वीरों का देश है आजादी के खातिर मैं महाराणा प्रताप हूं मैं भीष्म का बीज हूं प्रतिज्ञा में मृत्यु को बरण कर जाऊंगा ये मेरा कश्मीर है लश्कर बनकर आऊंगा दिल्ली से ज्यादा प्यारा है कट जाऊंगा मर जाऊंगा कश्मीर से तेरे नामोनिशान मिटा जाऊंगा मैं चक्रधर हूं तेरे ही अस्त्रों से तुझे मात दे जाऊंगा मैं चक्रधर हूं तेरे ही प्यादों से तुझको छल जाऊंगा ~जीवन समीर ~

क्यों हो ये बंधन

क्यों हो ये सीमाएं क्यों हो ये बंधन क्यों आये अवसाद के अवसर क्यों हो युद्ध के लिए तत्पर बंधुत्व का भाव जहाँ मैत्री का स्वभाव वहाँ क्यों है अलगाव यहाँ अस्मिता का प्रश्न कहां अशांति की डग भरते क्यों उन्माद का विष फैले क्यों सीमाएं अश्रु धारा बहाते क्यों अधर्मी होकर जीते क्यों प्रेम हो गया सर्वहारा यहाँ पूंजीपति बन गई घृणा विद्वेष की छाई काली घटा रक्तरंजित है तृणतृण तृष्णा संघर्षी मायावी जाल में बच तू न पायेगा क्या खोया क्या पाया यही सोचकर रह जायेगा मही की देह छलनी कर रक्त से प्यास तू बुझायेगा निरीह निढाल जीवों की भरपाई तू कर न पायेगा सीमाओं से बंधकर ही हमने सीमा तोडी है वैमनस्य का भाव जगाकर बंधुत्व की रस्म तोडी है सद्भावना के पथ प्रशस्त कर शांतिदूत बनकर घूमें स्नेहिल वीणा के झंकार में हो आनंदित नाचें गायें झूमें चेतो मानव अतीत से सभ्य आचरण का कर बरण छतें क्यों उद्दंड उददीपित आवर्त्तन में ओढें मानवता का आवरण न हो ये सीमाएं न हो ये बंधन भरकर अनुरागी नयन रोकें युद्धरत ये क्रंदन। ~जीवन समीर 

तुम क्यों अचानक

मिलन बांसुरी बजाकर सृजन का साज सजाकर नेह के नयन मिलाकर प्रीत के मधुर गीत गाकर खो गई तुम क्यों अचानक... छुपी चाह की अग्नि में घी छिड़क कर अंधेरी निशा में रोशनी दिखाकर कामज ज्वाला भडका कर रोम-र में दाह उकसाकर छोड़ गई तुम क्यों अचानक.... कौन - सी राह में गुजर गई हो कौन-सी स्पंदित शिराओं में सिमट गई हो जर्जर वय की उच्छखृंला में घिरकर दृगों में जग का सार लिए चली गई तुम क्यों अचानक   .! ~जीवन समीर