सुधि आई

मन के रेगिस्तान में
कैक्टसों की भरमार है
कहां ढूंढू उपजाऊ भूमि
ऊसर सारा संसार है

ऊंचे नभ में अटका यह
आकांक्षाओं का सूरज तप रहा
बेडियां घाव लेकर
मेघ नयनों का जप रहा

मलिन हुए पंछियों के स्वर
तम ने कोहराम मचाया है
विकल वेदना का खड्ग
नैराश्य ने चलवाया है

मौन डबडबाकर रोया
काली सडकों की बाहों में लिपटकर
कितने उथले मूक चेहरे
गंदल भी सोया गगन से चिपटकर

संदेहों की आंधी में
विश्वासों की डोर टूट गई है
सत्य और प्रेम को
दुनिया में अलग कर गई है

काल आज थमा सा
चलने का नाम न लेता
यादों के सावन को
किसने बरसने से रोका

सोचों के होठ क्यों फडकने लगे
तुम्हारी मुट्ठियां क्यों कसने लगी
आज शायद सुधि आई
आशाओं की प्यास जगी..?
~जीवन समीर 

टिप्पणियाँ

Anuradha chauhan ने कहा…

संदेहों की आंधी में
विश्वासों की डोर टूट गई है
सत्य और प्रेम को
दुनिया में अलग कर गई है
बेहतरीन रचना
Jiwan Sameer ने कहा…
धन्यवाद अनुराधा जी
Jiwan Sameer ने कहा…
बीना जी बहुत बहुत आभार

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