बांध लो आंचल

बह चली बयार
लुट न जाये सिंगार
उड़ा न ले कहीं
बेताब वो तैयार
बांध लो आंचल
कहीं छूट न जाये

शीशे की दीवार
चलना हुआ दुश्वार
संभलना जरा
गिरे हो हर बार
थाम लो जिगर
कहीं टूट न जाय

हर गली में तैयार
बैठे हैं चितचोर
बिखरे हैं इधर
तार-तार बेज़ार
बेदर्द जमाना है यह
कहीं लूट न जाय

शब्दों का शहर
हर तरफ पहरेदार
चल रहे तीर कई
हो न जाये आर-पार
संभाल कर नजर
कहीं चूक न जाय

कर लेना इज़हार
मान कर इकरार
हर बात हो स्वीकार
कस लो प्यार में
कहीं रूठ न जाय

देह में उठा ज्वार
कर न दे खाक यार
उड़ रही हैं आंधियां
हो जाओ खबरदार
बुझा लो अगन
कहीं फूंक न जाय!

©जीवन समीर 

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