इस बरसात में

तुम न आये रात राह देखती रही इस बरसात में
सपने सोये औ' नींद अंगड़ाई लेती रही इस बरसात में

दिनकर ऊंघता रहा रात रतजगा करती रही
अंबर ने मेघों के पर काट लिए इस बरसात में

अवनि क्रोध में तपती रही धुआं उगलती रही
हवायें मातम मनाती रही इस बरसात में

दरकते पर्वत श्रृंखला अपनी आपबीती सुनाती भी क्या
घाटियां गोलियों से छलनी थी इस बरसात में

दरख्त रूआंसे होकर ढह रहे थे घरों के
अलगाव की मशाल जल रही थी इस बरसात में

नन्हे पौधों का कर दोहन कर रहे उत्पीड़न
भूखे दरिंदे खुलेआम मस्त थे इस बरसात में

ठूंठ हुए जंगलों में लुट रही थी अस्मत
जाएं कहां खौफ में जी रहे परिंदे इस बरसात में
~जीवन समीर 

टिप्पणियाँ

Anuradha chauhan ने कहा…
बहुत खूब लिखा
Jiwan Sameer ने कहा…
Thanks for commenting

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