संदेश

मन में तू ठान ले

मन में तू ठान ले खुद को तू जान ले हौसला है तुझमें सीना तू तान ले.. सूखा है आकंठ ज्वालाएं प्रचंड मौत का गर्जन डरा रहा उद्दंड तज कर चिंता की बाधा आगे जीत है मान ले.. खून जो तप रहा स्वेद जो पसीज रहा शंका का घोर अंधेरा तुझ पर दांव लगा रहा नकार कर छल-कपट जोश तू जगा ले.... मरण का कर वरण तू मृत्यु का सत्य जान तू मौत न सतायेगी तुझे समझ जीवन कथन तू है माटी से बनी काया यह चेतन से पहचान ले.... दुष्ट का साथ छोड़ तू नेकी का दामन थाम तू अधर्म से होकर विरक्त कर्म कर निष्काम तू रोकर आया था जग में जायेगा मधुर मुस्कान ले..... कर्म से होगा मूल्यांकन नेक जैसा बोयेगा बीज तू फल देगा पेड़ सत्कर्म जब साथ तेरे तब देवतुल्य स्थान ले... तन ये दुर्लभ मानव का मिले न बारंबार ईश मिलन होएगा साधन हैं अपरंपार मुक्तिद्वार मिल जायेगा अब प्रेम तुल्य सम्मान ले...! ~जीवन समीर ~

मुक्त छंद

चिर तृष्णा तन आकुल चिरक्षुधा कहां बुझ पाती पनघट प्यासा सागर प्यासा अवनि की छाती है फटती अंबर प्यासा दिनकर प्यासा चहुँओर प्यास की प्यास जगी स्नेह निर्झर बहता ही जाय यही है मेरे उर में आस जगी। श्यामा निशि में खाक छानती बेकल तिमिर बंजारन बिन बुलाए ही आ धमकती चांदनी का कर निर्वासन व्याकुल हैं चांद सितारे यहां चकोर भी रूठा रूठा सिहरा है मरुथल से जीवन की मधु चांदनी होकर भी सब मिथ्या है स्वेद की बूंदों में है पुष्प खिलते परिश्रमी को है ये वरदान मिलते कर्म नहीं कोई असंभव होता सरिता मुडती है पर्वत भी हैं झुकते साधना है जीवन का सार सदा प्रस्तर सरिता की धार में शंकर बना करते मानवता खोकर ईश्वर नहीं बन सकता ईश्वर अवतार लेकर मानव बना करते परहित में जो लगे मानव वही है

अनहोनी

ठूंठ हिमालय हिमखंडों के चीथडों से अलग-थलग कुबडे की शक्ल में खड़ा है निर्वासित धरा धराशायी है भूकंप के पहरों से दूर कहीं उजाड़ सा उपवन कुछ पीले पत्तियों में सिमट कर खंखार रहा बलगमी खांसी निःसीम निःसत्व निर्लज्ज प्रभंजन के खूंखार स्वर प्रलाप कर रहे समुद्र भीषण गरल उगलता मदमत्त लहरों को कामुक वर्जनाओं में भर भर कर उच्छखृंलता की सीमाएं लांघता अंत होता प्रादुर्भाव से बिमुख सृजन का लिप्साबद्ध मुखौटे लुंजपुंज विलासिता की अमराई खंडखंड मानवनिर्मित दिखावटी कौशल परमाणु बम सा संशय का शैतान बिरक्तियों का रक्त विवृत फैला लाचार ब्रम्हांड काल के आगोश में शब्दों की नरमाई में सुसुप्त लज्जा का शव दह उठा है धुंए की शक्ल में उठ रही हैं ज्वालाएं अनहोनी बोल कर नहीं आती! ~जीवन समीर ~

बिंबों के शहतीर

विस्तृत शुचि अतीत मेरा स्फुरित होकर आता है अनुराग वैभव बचपन का प्रसुप्त सा प्रसून बन प्रस्फुटित होता है। यौवन है आज किंतु उद्विग्न विह्वल कलह जगत का अतिक्रम का अवशेष यह सरस आचार था छुटपन का। स्वच्छंद व्योम की वयार में पंछी सा उड़ जाता था जहां चाह वहां राह प्रतिक्षण प्रमोद में जीता था। सघन सत्य वैमनस्य विरत न जुगप्सा ज्वाला अंकुर फूटा बीज का प्रेम सुधा का मधु प्याला। व्यंग्य बाण न ताना बाना आभा व्याप्त उन्माषित था थी व्याप्त निरवद्य उपासना अमिय रस में पल्लवित आश्रय था। मां का आंचल छाया बनकर पिता की उंगली संभल था नेह मैत्री भाई-बहन की गुरु संदेश तुष्टि का। गगन की स्वच्छंद वयार में पंछी सा उड़ जाता था मनमौजी तारों सा बिचरता था प्रतिपल प्रमत्त उन्मुक्त था। सब पाकर भी सब खोया जीवन का मतलब समझ न आया माया मोह के जंजालों में सर्वस्व समर्पण कर भी चैन न पाया। आज स्मृत हो आया अंतस् में उजास भू का उजास अतीत छोर मेघ घिरे नभ में जब लौटा सजग प्रहरी सा छोर। स्वछंद गगन में मेघों ने रचे बनते-बिगड़ते बिंबों के शहतीर गरल मौन पीते पीते दामिनी हुई विह्वल चेतन...

मैं चक्रधर हूं

कर्ण नहीं मैं कि जो मांगो दे दूंगा लाचार नहीं मैं जो चाहोगे कर जाऊंगा मैं हिंद हूं दानी हूं पर अभिमानी हूं प्रेम में सर्वस्व समर्पित कर जाऊंगा अतीत के घावों से आक्रोशित है जर्रा जर्रा क्रूर नहीं मैं पर छेडोगे गर मुझको क्रूरता की सीमा पार कर जाऊंगा और सोच लेना प्रभंजन के सम्मुख अटल पहाड़ हूं ये वीरों का देश है आजादी के खातिर मैं महाराणा प्रताप हूं मैं भीष्म का बीज हूं प्रतिज्ञा में मृत्यु को बरण कर जाऊंगा ये मेरा कश्मीर है लश्कर बनकर आऊंगा दिल्ली से ज्यादा प्यारा है कट जाऊंगा मर जाऊंगा कश्मीर से तेरे नामोनिशान मिटा जाऊंगा मैं चक्रधर हूं तेरे ही अस्त्रों से तुझे मात दे जाऊंगा मैं चक्रधर हूं तेरे ही प्यादों से तुझको छल जाऊंगा ~जीवन समीर ~

कविता

ह्रदय में जब प्रेम जागा उनके अंतर्द्वंद की खाईयां पट गई अनर्गल शोर की गहमा-गहमी ठहर गई आकाश छितराया था पंछियों की चहलकदमी बढ़ गई थी नीरवता की अधनंगी तस्वीर लपटों की भेंट चढ़ गई सजीव सिलवटों की चादर मुस्कुरा उठी...! ~जीवन समीर 

क्यों हो ये बंधन

क्यों हो ये सीमाएं क्यों हो ये बंधन क्यों आये अवसाद के अवसर क्यों हो युद्ध के लिए तत्पर बंधुत्व का भाव जहाँ मैत्री का स्वभाव वहाँ क्यों है अलगाव यहाँ अस्मिता का प्रश्न कहां अशांति की डग भरते क्यों उन्माद का विष फैले क्यों सीमाएं अश्रु धारा बहाते क्यों अधर्मी होकर जीते क्यों प्रेम हो गया सर्वहारा यहाँ पूंजीपति बन गई घृणा विद्वेष की छाई काली घटा रक्तरंजित है तृणतृण तृष्णा संघर्षी मायावी जाल में बच तू न पायेगा क्या खोया क्या पाया यही सोचकर रह जायेगा मही की देह छलनी कर रक्त से प्यास तू बुझायेगा निरीह निढाल जीवों की भरपाई तू कर न पायेगा सीमाओं से बंधकर ही हमने सीमा तोडी है वैमनस्य का भाव जगाकर बंधुत्व की रस्म तोडी है सद्भावना के पथ प्रशस्त कर शांतिदूत बनकर घूमें स्नेहिल वीणा के झंकार में हो आनंदित नाचें गायें झूमें चेतो मानव अतीत से सभ्य आचरण का कर बरण छतें क्यों उद्दंड उददीपित आवर्त्तन में ओढें मानवता का आवरण न हो ये सीमाएं न हो ये बंधन भरकर अनुरागी नयन रोकें युद्धरत ये क्रंदन। ~जीवन समीर 

तुम क्यों अचानक

मिलन बांसुरी बजाकर सृजन का साज सजाकर नेह के नयन मिलाकर प्रीत के मधुर गीत गाकर खो गई तुम क्यों अचानक... छुपी चाह की अग्नि में घी छिड़क कर अंधेरी निशा में रोशनी दिखाकर कामज ज्वाला भडका कर रोम-र में दाह उकसाकर छोड़ गई तुम क्यों अचानक.... कौन - सी राह में गुजर गई हो कौन-सी स्पंदित शिराओं में सिमट गई हो जर्जर वय की उच्छखृंला में घिरकर दृगों में जग का सार लिए चली गई तुम क्यों अचानक   .! ~जीवन समीर 

तुम बिन

चित्र
कौन दिशा चली पुरवैया कौन दिशा चले सांवरिया दलदल में धंसा उर मेरा कौन दिशा जाये बावरिया पनघट पर चिढाये सखियां दुस्तर हो गई व्यथा डगरिया तीर नजरों के दुखते मदने बोझिल हुई विरह गठरिया अब के आकर बरस जाओ प्रीति में मानसून जैसे भीग भीग जाऊं इस तरह जनम जनम रहूं बस ऐसे ये चूड़ियाँ कंगना झुमके नकबेसर ये केश पलकें मंद मंद मुस्कान लूट लो तुम चैन धडकन सांसें तेरे बिन मैं कुछ नहीं मेरे साजन भंवर में पतवार डुबोती जा रही न कोई शिकायत न झांसा कोई रिश्तों के अनुबंध में बंधी हूं क्यो सोचो एकबार तुम बिन प्यासा कोई नयनों में कामुकता झलके बयार ने फिर मादकता छलकाई देह का सिंगार करूं भी कैसे तुम बिन कहां जीवन में मधुराई। ~जीवन समीर 

दोहे

निरख चांद पूनम का, सागर अति अकुलाय। मिलन सुधा तीव्र हुई, लहर लहर लहराय ।। तटिनी लहर निहार कर , मन ही मन सकुचाय। बैरन सी हो गई तृषा, कौन दिशा अब जाय।। ज्वालामुखी भडक रहा, सागर से मुंह मोड़। निशा का आह्वान कर, घन से कर गठजोड़।। छल रहा क्यों परिवार, सागर है अति बिस्मित । अगाध स्नेह छलका कर, प्रीति हुई अस्फुटित।। नभ भी अश्रु छलका रहा, मेघ अति बरसाय । चकोर अति रिझाये अब, सागर है पछताय।। ~जीवन समीर 

पीर पत्थर की

किसको सुनाऊं पीर यहां किससे सुनूं धीर यहां एक बारिश तन भीगा रही एक बारिश नयन भीगा गई एक बारिश मन सिहरा गई मौसम बंजारा है यहां बेघर घूमे यहां वहां व्यथाएं आज बरस रही तन मन को भिगो रही पत्थर हूँ मौन खड़ा निशि वासर एक सा न खनक न स्पंदन जिसने चाहा जहां फेंका जहाँ चाहा चुन दिया किसी ने महल में टांग दिया किसी ने मंदिर में हांक दिया किसी ने ईश्वर का रूप दे दिया किसी ने नग्न आकृति दे दी कहीं मैं भग्न हुआ कहीं रहा भग्नावशेष हूँ अकेला राह में ठोकरों में जीता निस्तब्ध निस्पंद निस्पृह दुख तो हुआ जब मानव ने मुझे हथियार बना दिया मेरी कौम को बदनाम किया पत्थरबाजी कर मेरा सर झुका दिया मां से उसका बच्चा छीन लिया पत्थर हूं मैं सब समझता हूँ मानव तो पत्थर था पत्थर ही रहेगा मुझमें आदमियत उभर रही है देखो मुझमें गीत गूंजने लगे हैं प्रेम और सद्भावना भरे मेरे घाव अब भी हरे-भरे मैं पत्थर हूँ तुम पत्थर दिल क्यों हो गये हो मुझे अकेला छोड़ दो मंदिर मस्जिद से दूर मैं नयाघर बसाना चाहता हूं नेह सौहार्द भरा पीर मेरी अनकही पीर मेरी अनसुनी ढो रहा बोझ अंतस् का बनकर पत्थर हो जाने त...

बह गये आंसू

बह गये आंसू के साथ सब गिले शिकवे हट गये गलतफहमियों के सब मलबे आंखों की दश्त में हुई बरसात इस कदर ढह गये ख्वाबों के सब महले दुमहले ठहरी थी निगाहें उनको ऊंचाइयों में देखने की चाटने लगे सब उनकी तबाही के तलवे सूखे पत्तों सा दिल मेरा मसला गया हर बार कहर ढा गये एक-एक कर उनके सब फतवे बिगड़े मौसम सा रहा तेरा मिजाज जीवन दिखा गये मुंतजिरी तेरे सब बेअदब जलवे ~जीवन समीर 

इस बरसात में

तुम न आये रात राह देखती रही इस बरसात में सपने सोये औ' नींद अंगड़ाई लेती रही इस बरसात में दिनकर ऊंघता रहा रात रतजगा करती रही अंबर ने मेघों के पर काट लिए इस बरसात में अवनि क्रोध में तपती रही धुआं उगलती रही हवायें मातम मनाती रही इस बरसात में दरकते पर्वत श्रृंखला अपनी आपबीती सुनाती भी क्या घाटियां गोलियों से छलनी थी इस बरसात में दरख्त रूआंसे होकर ढह रहे थे घरों के अलगाव की मशाल जल रही थी इस बरसात में नन्हे पौधों का कर दोहन कर रहे उत्पीड़न भूखे दरिंदे खुलेआम मस्त थे इस बरसात में ठूंठ हुए जंगलों में लुट रही थी अस्मत जाएं कहां खौफ में जी रहे परिंदे इस बरसात में ~जीवन समीर 

आंसुओं के नाम

ग्रंथियां उलझ गई छाये मेघ स्याम प्रीत मेरी हो गई आंसुओं के नाम विरह घड़ी कटे नहीं नीर लगे तप्त अंगार पीर अंतस की बढ रही बिहंसता स्वप्निल संसार पर्वतश्री की स्नेहिल धारा है गुमनाम प्रीत मेरी हो गई आंसुओं के नाम नव किसलय सी सज चौंधियाता था उल्लास एक आंधी ने दे आहट लूट लिया सब विश्वास अंबर में फैल गये कालिख के आयाम प्रीत मेरी हो गई आंसुओं के नाम ~जीवन समीर

अब विदा लेने आया हूं

हरित तृणों की स्निग्ध धरा से चुने थे सुरभित सुमन स्नेह भरे उर के उत्ताल तरंगों में आभासित पर्वत बालाएं निहारती थी तटिनी तीरे ओ पावन सलिला प्रवाहित हो जाऊं तुम सा बंधनमुक्त किसी अनंत गंतव्य को निकलूं तन्मय कोहरे और हिम को लांघता ठंडी चट्टानों में ढक मौसम को सहेजूं रसीले कंदमूल चख क्षुधा शांत करूं कलकल करती निनाद सरिता के संग संग सागर में मिलनातुर क्षणभंगुर जीवन की सांझ विदा दो मुझे नयन नीर बहा क्रंदित अंग अंग खाइयों घाटियों से उतरता उतराता अंतिम क्षण विदा ले ह्रदय का उत्कर्ष प्रकीर्ण प्राण प्रिय यौवन गर्म श्वासों और रक्त से विदा विदा हे यौत्स्ना पल्लवित धरा सो लेने दो विदा होने योगनिद्रा में लीन मेरी मातृभूमि मेरी जन्मस्थली ये गिरी जिसके स्पर्श से आह्लादित हो उठता मन गरिमामयी इतिहास लिए सुधा स्रोत मेरी विराट अंतस में समाहित मेरा कणकण गदराये थे जहां बचपन यौवन की लिप्सायें जहां रूदन में भी अमृत झर-झर झरता छीरवन जो बहता निर्झरों का वेग तुम शरद की चांदनी सा भावनाओं का तार छेडता सत्य के उजले तन पर पोत रहे कालिख क्यों नयनों को मौन अश्रु गा रहा अलख गाथा निर्लज्...

गीत

पिया ओ पिया तेरे बिन लागे न जिया हिया ओ हिया धड़के है मेरे पिया मन में छाई है काली घटा बरसने को रोके है कौन ये पिया आ जा कि सांझ बेचैन पसरा बाट मैं निहारूं कैसे कटे ये रतिया पथराये नयन बावरे निढाल हुए तुम न आये तुम्हारी याद आई पिया पवन झकोरे भी खामोश खड़े आया न कोई संदेश ये क्या किया आस भी टूट गई प्यास भी रूठी तड़पता है तेरे बिन मेरा जिया हिचकियों का अंबार है फूटा अबके सावन से देह भीग भीग गया दिवस रैन सांझ सकारे चिढ़ाय रहे चकोर सारे मिलन की आस जगा जाओ पिया विरहन को तुम गले लगा जाओ पिया.. ~जीवन समीर 

सुधि आई

मन के रेगिस्तान में कैक्टसों की भरमार है कहां ढूंढू उपजाऊ भूमि ऊसर सारा संसार है ऊंचे नभ में अटका यह आकांक्षाओं का सूरज तप रहा बेडियां घाव लेकर मेघ नयनों का जप रहा मलिन हुए पंछियों के स्वर तम ने कोहराम मचाया है विकल वेदना का खड्ग नैराश्य ने चलवाया है मौन डबडबाकर रोया काली सडकों की बाहों में लिपटकर कितने उथले मूक चेहरे गंदल भी सोया गगन से चिपटकर संदेहों की आंधी में विश्वासों की डोर टूट गई है सत्य और प्रेम को दुनिया में अलग कर गई है काल आज थमा सा चलने का नाम न लेता यादों के सावन को किसने बरसने से रोका सोचों के होठ क्यों फडकने लगे तुम्हारी मुट्ठियां क्यों कसने लगी आज शायद सुधि आई आशाओं की प्यास जगी..? ~जीवन समीर