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जन्मने से पूर्व

मैने वंचित रखा है इस बूढ़े सठियाये प्रेम को स्वयं से! क्यों लगा रहता है  मरने की कोशिश में  जैसे अवैध  पल रहे शिशु को  निकाल देना चाहती हो वह नवयौवना जिसे मैंने अपनी अकृतिम वासना से  प्रेम के जाल में फांस कर बनाया था  हवस का शिकार!  वह नहीं जन्मने देना चाहती ठूठ चिंह को सूखे अवसाद की फड़फड़ को रेंगती हवाओं के सहारे!  सुगंध की सौगंध खाकर भी मैं लंगडाता ही चला जा रहा हूं!  उदासियों की तासीर में  उसकी सारी भड़स  सारी संवेदनाएं उसके अल्हड़  गदराये तन को उदास नहीं करती सामर्थ्य भरती है!  मैं भंवर में हूँ  नदी के अजल प्रवाह में  भटक कर  डूबने को तैयार हूँ  जिसमें तैर रही हैं  तुम्हारे डबडबाये  अश्रु बुलबुले!  तुम्हारे द्वारा फेंका हुआ  हताश जाल आकाश लेकर आता है  पाल!  किंतु सब निरर्थक है  टूटने के बाद  निर्वस्त्र देह भी कहां झेल पाती है  अंतर्मन की पीर!  जब भी आत्मा  का बोझ सीने से हटेगा हत्यारे प्रेम की लहरें हम दोनों के बीच  फिर कोई संबल खड़ कर देग...
मौन तब भंग होता है जब अन्याय अत्याचार शोषण और दमन उसके आगे वीभत्स रूप ले लेता है और कवि की प्रतिभा का अवरूद्ध ज्वालामुखी अनायास ही फट पड़ता है । ह्रदय छलनी छलनी होकर शब्दों को गढता है और नया संसार रचता है।

मधुर मिलन तुम कर देना

सावन के मेघ घिरे धड़धड़ बरस गये सूख रही अवनी के  कण-कण में परस गये झूले में बैठ गोरियां सपने नये बुनती सी पिया मिलन की बूंदें  सरसर नयनों से टपकी सी चहुंओर पुष्प खिले सुरभित सुगंध लिये गुमसुम रतिभ्रमर को बयार ने पंख दिये सांसों में राधा जाग उठी मन को वृंदावन कर लेना मरुस्थल बने ह्रदय में  हरितवन तुम कर देना पत्तियों में खनकती बूंदों को धरा में झंकृत कर देना आहट पाकर मृगनयनी के  मधुर मिलन तुम कर देना! ©जीवन समीर