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धूप के कंडे

सरसराती धूप पतझड़ की सनसनाहट बिलबिलाते ऋतुराज की आहट सूखे मैदान में  उगने को आतुर दूर्वादल वह यौवना  पाथ रही धूप के कंडे खेत के मुहान पर जहाँ छाये हैं सरकंडे उसके हाथों में  चढ़ी हुई मेंहदी  सहला रही रेशारेशा  जाड़े की आत्महत्या करने की  मंशा जानकर फूटने लगता है जब दुख कुम्हलाये कपोलों पर चढ़ने लगता है  प्रिय की सुवासित  चुंबन का प्रभाव बिखर जाती है एक मुस्कान  जहाँ धुंध का डेरा था  ठंडी ओस उन कंडों से  वाष्पित होने लग जाती है  उसके हाथ अभ्यस्त हैं  धूप को उड़ेलने में कभी हटाती घास-फूस कभी गाती मल्हार कभी छलकाती स्मृतियों का उद्गार धड़कनों का धक् धक् सुलगते देह का खस खस उफान में होते तब उच्छ्वास उगने को तत्पर सरसों के फूल आमों की बौर कंडा कंडा दीवार पर चिपकाने में कभी हठीला बालमन कुचल पांवों से कभी अल्हड़ यौवन सुलझाने हथेली से कभी झुमुकों को सहलाती कभी चूड़ियों की खन-खन से चौंकचौंक जाती सिहर जाती अनहोनी से बादलों के गर्जन से  निस्तब्धता के भयावह घेरों में पदचापों की कामुक टंकारों से तप्त सांसों की हुंकारों से  अन...

है यह जाड़े की शाम प्रिये

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(पलायन कर गये गांवों की मनोदशा पर रचित) थरथर कांपे तन सघन होते घन सुधा गरल पीकर है टूटे अश्रु अविराम प्रिये! ना सिसकारी ना किलकारी बंद कपाट मंदिर के है सूने पनघट औ'धाम प्रिये! ऋतु बदली दिन बदले न पपीहा पी पी बोले न ही कोकिल कुहुके है विहंगम अंतर्धान प्रिये! टूटी सूखी विटप लतिकायें खडखडाती पल्लव कलिकायें खांसते बूढ़े बरगद है हुक्का हक्काबक्का गुड़गुड़ थाप प्रिये! नीड़ों में है कंपन मौन पदचापों का घर्षण नयन विछाये आस में है पलक अकुलाहट में थाम प्रिये! है विग्रह आग्रह कहाँ है स्वर में कलह यहाँ वे मधुर बातों की गुनगुन है नहीं तबले की थाप प्रिये! सूना प्रांगण सूना गगन न गौ रंभाये न पायल की रुनझुन शरणागत के जर्जर चौबारे में है यह जाड़े की शाम प्रिये! वे लोरियाँ लोककथायें रणबांकुरों की गूंजती सदायें घुटी रह गई वादियों में है बीत गई सन्नाटे की रात प्रिये! कैसे ठहरूं कैसे ढोऊं अतीत को बिसरा कैसे बोझिल स्वप्नों में सोऊं अब रो लूं कि खुद पर हंस लूं है यह जाड़े की शाम प्रिये! सुविधाओं की चाह में छले गये जो ठगों से राह में अभावों के खंडहरों से है पूछते निरीह अपनी थाह प्रिये!  उजड़े हैं क्यों कु...

बांध लो आंचल

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बह चली बयार लुट न जाये सिंगार उड़ा न ले कहीं बेताब वो तैयार बांध लो आंचल कहीं छूट न जाये शीशे की दीवार चलना हुआ दुश्वार संभलना जरा गिरे हो हर बार थाम लो जिगर कहीं टूट न जाय हर गली में तैयार बैठे हैं चितचोर बिखरे हैं इधर तार-तार बेज़ार बेदर्द जमाना है यह कहीं लूट न जाय शब्दों का शहर हर तरफ पहरेदार चल रहे तीर कई हो न जाये आर-पार संभाल कर नजर कहीं चूक न जाय कर लेना इज़हार मान कर इकरार हर बात हो स्वीकार कस लो प्यार में कहीं रूठ न जाय देह में उठा ज्वार कर न दे खाक यार उड़ रही हैं आंधियां हो जाओ खबरदार बुझा लो अगन कहीं फूंक न जाय! ©जीवन समीर 
मौन तब भंग होता है जब अन्याय अत्याचार शोषण और दमन उसके आगे वीभत्स रूप ले लेता है और कवि की प्रतिभा का अवरूद्ध ज्वालामुखी अनायास ही फट पड़ता है । ह्रदय छलनी छलनी होकर शब्दों को गढता है और नया संसार रचता है।