धूप के कंडे

सरसराती धूप
पतझड़ की सनसनाहट
बिलबिलाते ऋतुराज की
आहट
सूखे मैदान में 
उगने को आतुर दूर्वादल
वह यौवना 
पाथ रही धूप के कंडे
खेत के मुहान पर
जहाँ छाये हैं सरकंडे
उसके हाथों में 
चढ़ी हुई मेंहदी 
सहला रही रेशारेशा 
जाड़े की आत्महत्या करने की 
मंशा जानकर
फूटने लगता है जब दुख
कुम्हलाये कपोलों पर
चढ़ने लगता है 
प्रिय की सुवासित 
चुंबन का प्रभाव
बिखर जाती है एक मुस्कान 
जहाँ धुंध का डेरा था 
ठंडी ओस उन कंडों से 
वाष्पित होने लग जाती है 
उसके हाथ अभ्यस्त हैं 
धूप को उड़ेलने में
कभी हटाती घास-फूस
कभी गाती मल्हार
कभी छलकाती
स्मृतियों का उद्गार
धड़कनों का धक् धक्
सुलगते देह का खस खस
उफान में होते तब
उच्छ्वास
उगने को तत्पर
सरसों के फूल
आमों की बौर
कंडा कंडा दीवार पर
चिपकाने में
कभी हठीला बालमन
कुचल पांवों से
कभी अल्हड़ यौवन
सुलझाने हथेली से
कभी झुमुकों को सहलाती
कभी चूड़ियों की खन-खन से
चौंकचौंक जाती
सिहर जाती अनहोनी से
बादलों के गर्जन से 
निस्तब्धता के भयावह घेरों में
पदचापों की कामुक टंकारों से
तप्त सांसों की हुंकारों से 
अनंत शंकाओं में सिमटी
वह अधखिली फूल सी
पाथने में मशगूल 
वह यौवना कंडे
सरकंडों के छाया तले
सूरज की एक अदद 
चहारदिवारी में 
बसंत के आगमन की
करती प्रतीक्षा 
जो भूल चुकी थी
तितलियों से खेलना
लहरों से बातें करना
पंतग को उड़ते देखना
अब वह थी
फांक भर धूप थी
खुले आकाश की जगह 
दीवार थी! 

©जीवन समीर 

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