पिया ओ पिया तेरे बिन लागे न जिया हिया ओ हिया धड़के है मेरे पिया मन में छाई है काली घटा बरसने को रोके है कौन ये पिया आ जा कि सांझ बेचैन पसरा बाट मैं निहारूं कैसे कटे ये रतिया पथराये नयन बावरे निढाल हुए तुम न आये तुम्हारी याद आई पिया पवन झकोरे भी खामोश खड़े आया न कोई संदेश ये क्या किया आस भी टूट गई प्यास भी रूठी तड़पता है तेरे बिन मेरा जिया हिचकियों का अंबार है फूटा अबके सावन से देह भीग भीग गया दिवस रैन सांझ सकारे चिढ़ाय रहे चकोर सारे मिलन की आस जगा जाओ पिया विरहन को तुम गले लगा जाओ पिया.. ~जीवन समीर
मन के रेगिस्तान में कैक्टसों की भरमार है कहां ढूंढू उपजाऊ भूमि ऊसर सारा संसार है ऊंचे नभ में अटका यह आकांक्षाओं का सूरज तप रहा बेडियां घाव लेकर मेघ नयनों का जप रहा मलिन हुए पंछियों के स्वर तम ने कोहराम मचाया है विकल वेदना का खड्ग नैराश्य ने चलवाया है मौन डबडबाकर रोया काली सडकों की बाहों में लिपटकर कितने उथले मूक चेहरे गंदल भी सोया गगन से चिपटकर संदेहों की आंधी में विश्वासों की डोर टूट गई है सत्य और प्रेम को दुनिया में अलग कर गई है काल आज थमा सा चलने का नाम न लेता यादों के सावन को किसने बरसने से रोका सोचों के होठ क्यों फडकने लगे तुम्हारी मुट्ठियां क्यों कसने लगी आज शायद सुधि आई आशाओं की प्यास जगी..? ~जीवन समीर
मिलन बांसुरी बजाकर सृजन का साज सजाकर नेह के नयन मिलाकर प्रीत के मधुर गीत गाकर खो गई तुम क्यों अचानक... छुपी चाह की अग्नि में घी छिड़क कर अंधेरी निशा में रोशनी दिखाकर कामज ज्वाला भडका कर रोम-र में दाह उकसाकर छोड़ गई तुम क्यों अचानक.... कौन - सी राह में गुजर गई हो कौन-सी स्पंदित शिराओं में सिमट गई हो जर्जर वय की उच्छखृंला में घिरकर दृगों में जग का सार लिए चली गई तुम क्यों अचानक .! ~जीवन समीर
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