फिर भी....

गगन के मध्य में
पूनम का चांद खड़ा है
मौन दिशा है
मौन निशा है
विह्वल हैं प्राण फिर भी

ढूंढती है पलकें
आस मिलन की
शोर पदचाप का बढ़ रहा
नयन आतुर हैं
सुधियां विकल हैं
सूनी हैं राहें फिर भी

टंग गई हैं कहीं स्मृतियाँ
चांद है चांदनी है
यामिनी भी नहा रही
दूर है कोई फिर भी

गीत हैं सिंगार के
ओंठ तृषित
श्वास स्पंदित
कामनाएं सिंचित
भीगे हैं अश्रु फिर भी

उगते घन कजरारे
क्रूर अक्रूर
गर्जन मर्दन
चातक तृष्णित फिर भी

रिसती चांद की रश्मियां
खिली बांछें
उठी बाहें
गलवलियां लेती सांसें फिर भी

रतजगे में उडगन
स्वप्न अनूठे
भूले बिसरे
शहनाईयां बजती फिर भी

सेतु बंधा आकाशगंगा में
पथिक सकपकाये
डग डगमगाये
आवागमन होने लगा फिर भी

गंतव्य कहां
प्रारब्ध कहां
मायावी छल प्रपंच
सजा रंगमंच
हुआ मंचन पटाक्षेप फिर भी।
~जीवन समीर ~


टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
Very nyc poem... really awesome.... if you want to read business and personality related articles visit chandeldiary.blogspot.com
Jiwan Sameer ने कहा…
धन्यवाद चंदेल जी
Anuradha chauhan ने कहा…
बहुत सुंदर रचना आदरणीय
Neelam agarwal ने कहा…
खूबसूरत रचना

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