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सितंबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

छल कपट के वारे न्यारे हैं

छल कपट के वारे न्यारे हैं  दुष्ट प्रवृत्ति वाले सबके प्यारे हैं  मिश्री घोल कर करते जो घात दोगले होते हैं जिनके जज्बात  पीठ पीछे बुराई के हैं सरताज छुपाकर भी छुप नहीं सकते उनके राज पर निंदा है ही उनकी जीवन चर्या चुभाते कांटे जो भी दें वे प्रतिक्रिया  दीनहीन की उडाते हैं बस खिल्ली  देख नहीं सकते कभी भी दूसरे की खुशी कुटिल नीति अशांति के ये रखवाले हैं  अपयश के पहरेदार बडे़ निराले हैं  गतआगत की चिंता के ये चटोरे हैं  कस्तूरी मृग से दिग्भ्रमित बौराये हैं।  ~जीवन समीर ~

यूंही बेसब्र होकर

यूंही बेसब्र होकर बात न कर बेवजह हसरतों की शुरुआत न कर मोहब्बत में तोलते रहे हमें क्योंकर मेरी आरजू का वजन कमतर न कर क्या समझता है न जाने मुझे तू मुझे ख़ामख़ाह बदनाम न कर हंसने का शौक इतना पाल के रोने के मौकों में इंकार न कर दिल से दिल लगाकर देख लिया तूने अब इश्क से इश्क करने की भूल न कर छलनी किये देते हो तुम कलेजा तीर नजर मुझमें आजमाया न कर सूरज डूब गया है समंदर में आज अपनी आंखों में आंसुओं को सरसार न कर तुम भी रखते हो अक्ल की दौलत समीर यूंही हामी भरकर सिर हिलाया न कर आकाश में उडन को पंख मिले हैं गर तू दरिया में जाकर डूबा न कर दिलों में पैठ अपनी बढाने की सोच यूंही किसी से घात-प्रतिघात न कर ~जीवन समीर ~

फिर भी....

गगन के मध्य में पूनम का चांद खड़ा है मौन दिशा है मौन निशा है विह्वल हैं प्राण फिर भी ढूंढती है पलकें आस मिलन की शोर पदचाप का बढ़ रहा नयन आतुर हैं सुधियां विकल हैं सूनी हैं राहें फिर भी टंग गई हैं कहीं स्मृतियाँ चांद है चांदनी है यामिनी भी नहा रही दूर है कोई फिर भी गीत हैं सिंगार के ओंठ तृषित श्वास स्पंदित कामनाएं सिंचित भीगे हैं अश्रु फिर भी उगते घन कजरारे क्रूर अक्रूर गर्जन मर्दन चातक तृष्णित फिर भी रिसती चांद की रश्मियां खिली बांछें उठी बाहें गलवलियां लेती सांसें फिर भी रतजगे में उडगन स्वप्न अनूठे भूले बिसरे शहनाईयां बजती फिर भी सेतु बंधा आकाशगंगा में पथिक सकपकाये डग डगमगाये आवागमन होने लगा फिर भी गंतव्य कहां प्रारब्ध कहां मायावी छल प्रपंच सजा रंगमंच हुआ मंचन पटाक्षेप फिर भी। ~जीवन समीर ~

वजह दे दो

संताप से घिरे जीवन में मुस्कराने की वजह दे दो घुटन भरे माहौल में जलजला लाने की वजह दे दो। चक्रव्यूह में फंसा है श्वास श्वास निरीह चेतन का दाह में जलते बचपन को खिलखिलाने की वजह दे दो युद्धरत है दिनकर से निशा भोर से सांझ होनेतक उलझे वियावान में सिलवटों को सुलझाने की वजह दे दो संघर्ष के कर्कश तम में झंकृत है जुगनू की पायल भंवर की इस नाट्यशाला में नाचने की वजह दे दो। अस्मत निशिदिन रौदी जाती क्रंदन का शोर है हवस भरे मरघट में प्राण प्रत्यर्पित होने की वजह दे दो। ~जीवन समीर ~