क्यों हो ये बंधन

क्यों हो ये सीमाएं
क्यों हो ये बंधन
क्यों आये अवसाद के अवसर
क्यों हो युद्ध के लिए तत्पर

बंधुत्व का भाव जहाँ
मैत्री का स्वभाव वहाँ
क्यों है अलगाव यहाँ
अस्मिता का प्रश्न कहां

अशांति की डग भरते क्यों
उन्माद का विष फैले क्यों
सीमाएं अश्रु धारा बहाते क्यों
अधर्मी होकर जीते क्यों

प्रेम हो गया सर्वहारा यहाँ
पूंजीपति बन गई घृणा
विद्वेष की छाई काली घटा
रक्तरंजित है तृणतृण तृष्णा

संघर्षी मायावी जाल में
बच तू न पायेगा
क्या खोया क्या पाया
यही सोचकर रह जायेगा

मही की देह छलनी कर
रक्त से प्यास तू बुझायेगा
निरीह निढाल जीवों की
भरपाई तू कर न पायेगा

सीमाओं से बंधकर ही
हमने सीमा तोडी है
वैमनस्य का भाव जगाकर
बंधुत्व की रस्म तोडी है

सद्भावना के पथ प्रशस्त कर
शांतिदूत बनकर घूमें
स्नेहिल वीणा के झंकार में
हो आनंदित नाचें गायें झूमें

चेतो मानव अतीत से
सभ्य आचरण का कर बरण
छतें क्यों उद्दंड उददीपित आवर्त्तन में
ओढें मानवता का आवरण

न हो ये सीमाएं
न हो ये बंधन
भरकर अनुरागी नयन
रोकें युद्धरत ये क्रंदन।

~जीवन समीर 

टिप्पणियाँ

Neelam agarwal ने कहा…
अतिसुन्दर रचना
Jiwan Sameer ने कहा…
धन्यवाद जी

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